Thursday, June 6, 2013

कथित गाली सुनने वाले उपनिरीक्षक के निलंबन की जांच सम्बंधित पत्र



सेवा में,
प्रमुख सचिव (गृह),
उत्तर प्रदेश शासन,
लखनऊ
विषय- जनपद मुजफ्फरनगर के उपनिरीक्षक से सम्बंधित प्रकरण की जांच विषयक
महोदय,
कृपया निवेदन है कि मैंने कल ही अपने पत्र संख्या- AT/Muz/Home/01 दिनांक- 05/06/2013 द्वारा श्री रघुराज सिंह भाटी, पुलिस उप निरीक्षक, तैनाती- थाना मीरापुर, जनपद मुजफ्फरनगर द्वारा वहाँ की एसएसपी सुश्री मंजील सैनी द्वारा कथित रूप से उन्हें मोबाइल फोन पर एक मुकदमे के सम्बन्ध में अपशब्दों का प्रयोग करने के कारण क्षुब्ध हो कर जनरल डायरी (जीडी) में पूरे घटनाक्रम को अंकित कर नौकरी से त्यागपत्र देने सम्बंधित समाचार के परिप्रेक्ष्य में अपनी व्यक्तिगत (निजी) हैसियत में इस देश के एक जागरूक नागरिक के रूप में आपके सम्मुख कतिपय तथ्य प्रस्तुत किये थे.
मैंने पत्र में कहा था कि मैंने श्री भाटी से उनके मोबाइल पर बात किया था जिसमे उन्होंने मुझे बताया था कि एसएसपी ने उन्हें फोन पर ही गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग किया, जैसे- “साले, कुत्ते के वच्चे तुम उस कुत्ते के वच्चे (पूर्व में गिरफ्तार हुआ सिपाही) को सपोर्ट कर रहे हो. हरामी हो” आदि-आदि.

श्री भाटी के अनुसार यही वे शब्द और भाषा थी जिनसे वे एकदम से विचलित हो गए और उन्होंने सारी बात लगभग हूबहू जीडी में दर्ज कर दी थी. श्री भाटी ने मुझे बताया था कि बाद में चर्चा के बाद श्री भाटी ने अपनी तरफ से इस प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया, यद्यपि वे इस घंटना से अंदर तक आहत थे.

मैंने उपरोक्त घटना के क्रम में यह निवेदन किया था कि इसे एक दृष्टांत के रूप में ग्रहण करते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस विभाग में एक नए युग और कार्यसंस्कृति के सूत्रपात के जनक के रूप में इन समस्त बिंदुओं पर ध्यान देते हुए वर्तमान में पुलिस विभाग में इस प्रकार की जो अकारण डांट-डपट, नीचा दिखाने और कई बार गाली-गलौच करने की स्थितियां विद्धमान हैं, उन्हें दूर करने और उनकी जगह एक नए और खुले माहौल का निर्माण करने के समुचित प्रयास किये जायें.
इसके बाद आज प्रातः मुझे श्री भाटी का फोन आया जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें निलंबित कर दिया गया है और उन पर अनुशासनहीनता के आरोप लगाए गए हैं. यह समाचार वास्तव में स्तब्ध करने वाला है क्योंकि यहाँ जिस व्यक्ति द्वारा यह आरोप लगाए गए कि उसे उसके वरिष्ठ अधिकारी (एसएसपी) ने भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं, उसे उसी वरिष्ठ अधिकारी द्वारा निलंबित भी कर दिया गया जो स्पष्टतया न्याय के सिद्धांतों के पूर्णतया विपरीत प्रतीत होता है.
इस घटना से मुझे श्री विजय कुमार शर्मा, पूर्व पुलिस उपाधीक्षक, तत्कालीन तैनाती- 38 वीं वाहिनी, पीएसी, अलीगढ के निलंबित किये जाने से की बात याद आ जाती है. श्री शर्मा को भी इसी प्रकार अत्यंत व्यथित मानसिक अवस्था में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश तथा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, एटा पर गंभीर आरोप लगाए जाने के बाद राज्य सरकार द्वारा निलंबित किया गया था. मैंने उस समय भी अपनी निजी हैसियत में अपने पत्र संख्या- AT/VKS/DGP/01 दिनांक-30/10/2012 द्वारा रतनलाल शर्मा बनाम मैनेजिंग कमिटी, 1993 (4SCC) 727 में मा० सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुक्रम में इन समस्त आरोपों की जांच पुलिस विभाग से अलग शासन के किसी अन्य विभाग द्वारा कराये जाने का निवेदन किया था, साथ ही श्री शर्मा द्वारा जनपद एटा में अन्वेषण किये जा रहे दहेज हत्या के मामले में उनके द्वारा लगाए गए आरोपों एवं श्री शर्मा द्वारा पुलिस महानिरीक्षक, कानपुर परिक्षेत्र के विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग करने विषयक आरोपों की भी पुलिस विभाग से अलग स्वतंत्र रूप से जांच कराने की मांग की थी.

अंततोगत्वा मेरी कई बातें उस समय सत्य साबित हुई थीं जब श्री शर्मा द्वारा मा० उच्च न्यायालय में दायर रिट याचिका संख्या 1587/2012 (एसबी) में मा० उच्च न्यायालय के आदेश 04/01/2013 द्वारा उनके निलंबन को मनमाना (arbitrary) कहा गया जहाँ अधिकारियों द्वारा अपनी शक्ति का अनुचित प्रयोग (colourable exercise of powers) किया गया हो. इसी आधार पर उनका निलंबन भी समाप्त किया गया था.
कष्ट का विषय रहा कि मेरे बार-बार अनुरोध के बाद भी श्री शर्मा के मामले में उनके द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच पुलिस विभाग से अलग शासन के किसी अन्य विभाग द्वारा नहीं कराई गयी और ना ही उन्हें जिस प्रकार से मनमाना (arbitrary) और शक्ति का अनुचित प्रयोग (colourable exercise of powers) कर निलंबित किया गया, इसकी ही जांच कराते हुए इस हेतु जिम्मेदार अधिकारियों के उत्तरदायित्व का निर्धारित किया गया.

श्री भाटी को इस प्रकार एसएसपी पर गाली-गलौज का आरोप लगाए जाने और उसे लिपिबद्ध करने के बाद उन्हें उन्ही अधिकारी द्वारा निलंबित किया जाना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के प्रतिकूल दिखता है. यह भी अजीब लगता है कि जब एक कनिष्ठ अधिकारी ने एक वरिष्ठ अधिकारी पर गाली-गलौज करने जैसे गंभीर आरोप लगाए तो उन आरोपों की किसी निष्पक्ष एजेंसी से जांच नहीं कराई गयी बल्कि उन वरिष्ठ अधिकारी महोदया द्वारा कनिष्ठ अधिकारी को अपने ही आदेश से निलंबित कर दिया गया.
मैं एक बार भी नहीं कह रहा कि श्री भाटी ने जीडी में जो लिखा वह सब सही था. चूँकि अभी इन तथ्यों की जांच नहीं हुई है अतः कुछ भी होना संभव है- यह भी हो सकता है कि श्री भाटी के साथ गंदे तरीके से गाली-गलौज हुई हो और यह भी संभव है कि वे गलत कह रहे हों. यद्यपि मुझे व्यक्तिगत स्तर पर दूसरी संभावना कम दिखती है क्योंकि मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि पुलिस जैसे अत्यंत अनुशासित विभाग में अधीनस्थ अधिकारी तब तक सामने नहीं आना चाहते जब तक वे एकदम बाध्य नहीं हो जाते हैं, अन्यथा वे निरंतर वरिष्ठ अधिकारियों के प्रभाव से वशीभूत होते हैं.
दोनों स्थितियों में यह नितांत आवश्यक है कि इस पूरे प्रकरण की जांच एसएसपी मुजफ्फरनगर के अधीन किसी भी अधिकारी से नहीं कराई जाए क्योंकि इस प्रकरण में वे स्वयं एक पक्ष हैं और इस तरह उनके अधीन किसी अधिकारी को यह जांच संपादित करने का विधिक अधिकार शेष नहीं रह जाता दिखता है. यदि संभव हो तो यह जांच पुलिस विभाग के किसी अधिकारी से नहीं करा कर किसी अन्य विभाग के अधिकारी से कराई जाए क्योंकि ऐसा प्रायः देखा गया है कि पुलिस विभाग में वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारी के प्रकरणों में बहुधा जांचकर्ता अधिकारी वरिष्ठ अधिकारी के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं. मैं यह भी निवेदन करूँगा कि इस जांच में उस विवेचना के सम्बन्ध में भी स्थिति स्पष्ट की जाए जिसे ले कर यह पूरी घटना घटी और यह देखा जाए कि विवेचक के रूप में श्री भाटी द्वारा जब अपने विधिक कार्यों का संपादन किया जा रहा था तो एसएसपी द्वारा किस विधिक हैसियत से एक विवेचना के विषय में उन्हें मौखिक निर्देश दिये जा रहे थे और विवेचक की विवेचना करने की स्वायतत्ता पर हस्तक्षेप किया जा रहा था.
मैं इस प्रकरण से व्यक्तिगत रूप से कत्तई प्रभावित नहीं हूँ. इसके विपरीत यह पत्र लिखने पर मेरे कई लोगों का कोपभाजन बनने की ही प्रबल संभावना रहेगी. इसके बाद भी मैं यह पत्र अपनी व्यक्तिगत हैसियत में इसीलिए लिख रहा हूँ क्योंकि अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों के प्रति मेरी व्यक्तिगत संवेदनशीलता, मेरे अब तक के तमाम व्यक्तिगत अनुभव और मेरी सामाजिक कर्तव्यधर्मिता मुझे इस बात को बाध्य कर रही है कि व्यक्तिगत हित-अहित और लाभ-हानि की बात नहीं सोच कर मैं इस प्रकरण में प्रथमद्रष्टया दिख रहे अन्याय के प्रति अपनी आवाज़ उठाऊं.

पत्र संख्या- AT/Muz/Home/01 भवदीय,
दिनांक- 06/06/2013
(अमिताभ ठाकुर)
5/426, विराम खंड,
गोमती नगर, लखनऊ
# 94155-34526

No comments:

Post a Comment