Saturday, May 18, 2013

माखौल बनाने के लिए क़ानून नहीं बनें

माखौल बनाने के लिए क़ानून नहीं बनें

रांगेय राघव हिंदी के उन विशिष्ट और बहुमुखी प्रतिभावाले रचनाकारों में से हैं जो बहुत ही कम उम्र लेकर इस संसार में आए, लेकिन जिन्होंने अल्पायु में ही एक साथ उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, आलोचक, नाटककार, कवि, इतिहासवेत्ता तथा रिपोर्ताज लेखक के रूप में स्वंय को प्रतिस्थापित कर दिया. लेकिन वे संभवतः यह सब काम बहुत कम समय में इसीलिए कर सके क्योंकि उन्हें यह सारा काम अपने स्तर पर ही करना था, इन कार्यों में किसी शासकीय संस्था से कोई सारोकार नहीं था. अन्यथा शायद उनकी दशा अपने स्वयं के एक अत्यंत चर्चित उपन्यास “कब तक पुकारूं” की तरह होने की स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है.

रांगेय राघव को स्वयं सोचना और अपनी सोच को क्रियान्वयित करना पड़ता था, सो आसानी थी. लेकिन शासकीय प्रणाली के बातें अपने हाथ में नहीं होतीं और चीज़ें शायद अपनी ही गति से चलती हैं.

यह बात हर उस आदमी को जान लेनी चाहिए जो शासकीय व्यवस्था से ताल्लुख रखना चाहता है. खास कर उस लोगों को जो सरकारी तंत्र के माध्यम से परिवर्तन के लिए कार्यरत हैं.

मैं अपनी एक आपबीती के जरिये इस बात को कुछ विस्तार में प्रस्तुत करना चाहूँगा. यह सिलसिला पिछले साल तब शुरू हुआ जब मेरे संज्ञान में यह बात आई कि भारत में इन्टरनेट, साइबर जगत तथा कंप्यूटर से सम्बंधित प्रकरणों में प्रभावी विधिक नियंत्रण बनाने के लिये लागू किये गए इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी  एक्ट 2000  में एक धारा 79 है जो सर्विस प्रोवाइडर या इंटरमेडीयरिएज़ के लिए है. इस धारा के अनुसार याहू, गूगल, फेसबुक, माई स्पेस जैसे सभी इंटरमिडीयरी किसी तृतीय पार्टी द्वारा दी जा रही सूचना के लिए जिम्मेदार नहीं होंगे यदि वे अपने कर्तव्य पालन में अपेक्षित सावधानी बरतेंगे. इसी धारा को अधिक विस्तार देने के लिए भारत सरकार द्वारा इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी  एक्ट 2000  में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी (इंटरमिडीएरी गाइडलाइन्स) नियमावली 2011 बनाए गए.

इस नियमावली के नियम तीन के अनुसार इंटरमिडीएरी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे यह स्पष्ट रूप से अंकित करेंगे कि किस प्रकार की सूचनाएँ वेबसाईट पर नहीं रखी जा सकती हैं. यह भी अपेक्षित है कि किसी प्रभावित व्यक्ति द्वारा सूचना दिये जाने पर छत्तीस घंटे में उसका निराकरण किया जाएगा. नियम 11 के अनुसार इंटरमिडीएरी अपने वेबसाईट पर शिकायत अधिकारी के नाम और उनके संपर्क पते प्रकाशित करेगा.

भारत सरकार ने ये जो नियम बना रखे हैं वे अत्यंत ही उपयोगी और आवश्यक हैं और आम उपभोक्ताओं के हित में हैं. यदि इंटरमेडीयरी यह स्पष्ट कर दें कि किस प्रकार की सूचनाएं नहीं लिखी या प्रसारित की जा सकती हैं तो उपभोक्ताओं को इससे काफी मदद मिलेगी. इससे भी बढ़ कर यदि प्रत्येक सर्विस प्रोवाइडर के वेबसाईट पर एक या अधिक शिकायत अधिकारियों के नाम और संपर्क पते दिये गए होंगे तो कोई भी उपभोक्ता बड़ी आसानी से अपनी समस्या उन तक रख सकता है.

जब हमने इस सम्बन्ध में कुछ बड़े वेबसाईट जैसे याहू, गूगल, फेसबुक, माई स्पेस देखे तो पाया कि वर्तमान में ये सभी इंटरमिडीयरी इन सभी नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं. इस स्थिति को दूर कराने के उद्देश्य से मैंने और मेरी पत्नी नूतन ने मई 2012 में इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच में एक रिट याचिका संख्या 3489/2012 दायर किया. मा० कोर्ट ने इसमें आदेश देते हुए कहा कि आज का युग इंटरनेट का युग है, अतः इंटरनेट सम्बंधित नियमों को पूरी सख्ती से पालन किया जाए. हमने अपना पक्ष कोर्ट में स्वयं रखा जबकि भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता अशोक निगम ने रिट याचिका का इस आधार पर विरोध किया कि याचीगण ने याहू, गूगल आदि को प्रतिवादी नहीं बनाया है.

जस्टिस देवी प्रसाद सिंह और जस्टिस सईद उज-जमा सिद्दीकी के बेंच ने शासकीय अधिवक्ता की बात को उचित नहीं मानते हुए अपने आदेश में कहा कि यदि भारत सरकार ने कोई नियम बनाया है तो उसे इसका पूरा पालन भी कराया जाना चाहिए. उन्होंने यह कहा कि इस मामले में याचीगण ने कई बार सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार को इन नियमों का पालन कराये जाने हेतु प्रत्यावेदन दिया पर उस स्तर से कोई कार्यवाही नहीं की गयी. अतः उन्होंने कहा कि चूँकि यह मामला जनहित का है अतः सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय यह सुनिश्चित करें कि तीन माह में याहू, गूगल, फेसबुक, माई स्पेस जैसे सभी इंटरमिडीययरी इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी (इंटरमिडीएरी गाइडलाइन्स) नियम 2011 के नियम 11  के अनुसार शिकायत अधिकारी के नाम और उनके संपर्क पते प्रकाशित करें.  उन्होंने सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी को यह भी आदेश दिये कि याचीगण द्वारा प्रेषित प्रत्यावेदन पर कृत कार्यवाही से उन्हें भी अवगत कराएं.

हमें उम्मीद तो यही थी कि इस आदेश के साथ ही मामला हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा. भारत सरकार द्वारा हाई कोर्ट के आदेश का पालन करवा लिया जाएगा और आम इन्टरनेट उपभोक्ताओं के पक्ष में अच्छा काम हो जाएगा.

पर शायद अभी ये सिर्फ शुरुआत थी. मैंने और नूतन से भारत सरकार को हाई कोर्ट का यह आदेश भेजा. इस पर हमें इलेक्ट्रौनिक और आईटी विभाग की ओर से एक पत्र मिला जिसमे लिखा था कि हाई कोर्ट के आदेशों से सभी सर्विस प्रोवाइडर को लिखित रूप से अवगत करा दिया गया है और उन्हें इस आदेश के परिप्रेक्ष्य में नियमावली का पूर्ण अनुपालन करने के निर्देश दिये गए हैं.

जब पर्याप्त समय बीतने के बाद भी सर्विस प्रोवाइडर द्वारा इन नियमों का पालन नहीं किया गया तो नूतन ने हाई कोर्ट में एक अवमानना याचिका दायर किया. कोर्ट ने हमारी बात को अंशतः ही स्वीकार किया और यह आदेश दिया कि चूँकि कोर्ट के आदेशों के क्रम में भारत सरकार द्वारा पत्र के माध्यम से निर्देश निर्गत किये गए थे, अतः कोर्ट के आदेशों का पालन माना जाएगा. इस प्रकार इस मामले में कोई अवमानना नहीं हुई. इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि वादी को ऐसा महसूस होता है कि उसके द्वारा कही गयी बात का पूर्ण अनुपालन नहीं हुआ है तो वह दुबारा इस सम्बन्ध में सक्षम प्राधिकारी के सामने अपनी बात रख सकता है.

चूँकि अभी तक ज्यादातर सर्विस प्रोवाइडर नियमों का पालन नहीं कर रहे थे, लिहाजा हमने इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच में पुनः इस सम्बन्ध में पिछले वर्ष नवंबर में रिट याचिका संख्या 9359/2012 दायर किया, जिसमे एक बार फिर वही मांग रखी गयी. हमारे रिट पर जस्टिस उमा नाथ सिंह और जस्टिस वी के दीक्षित की बेंच ने इलेक्ट्रोनिक और आईटी विभाग को तीन माह में केन्द्र सरकार द्वारा न्यायालय में दी गयी प्रतिबद्धता का पालन करने के आदेश दिये. 

जब तीन माह से अधिक का समय बीत गया तो नूतन ने दूसरा कंटेम्प्ट पेटिशन दायर किया. इसमे जस्टिस डॉ सतीश चंद्र ने प्रथमद्रष्टया यह पाया कि अवमानना हुई है और सचिव, इलेक्ट्रोनिक और आईटी विभाग के विरुद्ध कंटेम्प्ट नोटिस जारी किया और दस दिनों में आदेश का पालन करने के निर्देश दिये.  अगली तिथि में जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने सचिव, भारत सरकार को प्रथमद्रष्टया अवमानना का दोषी पाते हुए उन्हें अगली तिथि में कोर्ट में प्रस्तुत होने के आदेश दिये. 

अव इस सम्बन्ध में इलेक्ट्रौनिक और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव का एक आदेश दिनांक 17 मई 2013 हमें प्राप्त हुआ है. इस के आदेश के अनुसार सरकार ने नियमों का पालन कराने के हाई कोर्ट के आदेशों के बारे में 12 जून 2012 को सभी सर्विस प्रोवाइडर को निर्देश भेजे. फिर 02 अगस्त को विभागीय मंत्री की अध्यक्षता में हुई एक बैठक, जिसमें हमारे सहित सर्विस प्रोवाइडर, इंडस्ट्री तथा सिविल सोसायटी के लोग आमंत्रित किये गए थे, में ये निर्देश दिये गए. 29 नवंबर 2012  को विभागीय मंत्री की अध्यक्षता में साइबर रेग्युलेशन एडवाजरी कमिटी (क्रैक) की बैठक हुई जिसमे हाई कोर्ट के आदेशों पर चर्चा हुई. कुछ सर्विस प्रोवाइडर ने यह कहा कि वे शिकायत अधिकारी नियुक्त करने से असहमत हैं क्योंकि ऐसा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कहीं नहीं होता. मंत्रालय ने इन लोगों की बात अस्वीकार करते हुए कहा कि उन्हें इस देश का क़ानून और हाई कोर्ट का आदेश मानना ही होगा. मंत्रालय ने अपने वेबसाईट पर भी हाई कोर्ट के आदेश डाल रखा है. 

इस तरह आदेश में यह बात बतायी गयी कि मा० हाई कोर्ट के आदेशों का पूरी मुस्तैदी से पालन कराया जा रहा है और किसी भी स्तर पर कोई भी अवमानना नहीं हुई है.

लेकिन इन सब प्रयासों के बाद मुख्य देखने वाली बात यह है कि आज भी बहुतायत में सर्विस प्रोवाइडर इस नियमावली के नियम तीन तथा 11 का पालन नहीं कर रहे हैं. यहीं यह प्रश्न आ कर खड़ा हो जाता है कि आखिर हमारे देश में हर क्षेत्र में क़ानून को तमाम होते हैं, उनके पालन में हमेशा कई प्रश्न उठते रहते हैं. शायद अब समय आ गया कि यदि कोई कानूनी गलत या बेमानी या अनुपयोगी हैं तो उन्हें बदल दिया जाए लेकिन यदि कोई क़ानून है तो फिर उसका सख्ती से पालन किया जाए. क़ानून है भी और नहीं भी, ऐसी स्थिति किसी भी सूरत में अच्छी नहीं कही जायेगी. यह देश की पूरी व्यवस्था को असहाय सी दिखाती है जो हम जैसे तमाम लोगों को बहुत बुरा लगता है.

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