Thursday, May 9, 2013

रेलवे विभाग में व्याप्त भाईचारा ?

रेलवे विभाग में व्याप्त भाईचारा ?

क्या रेलवे विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ पब्लिक द्वारा दी गयी शिकायतों में सिस्टम उनको बचाने में सक्रीय हो जाता है ? कम से कम मेरे द्वारा की गयी शिकायत में अब तक का परिणाम तो कुछ ऐसा ही बताता दिखता है. मैं इस पूरे घटनाक्रम को अत्यंत विस्तार से प्रस्तुत कर रहा हूँ. हो सकता है कई लोग इसे बोरिंग मानें, कई बेवकूफी भरा, कई उद्देश्यविहीन. मुझे ऐसा सोचने और कहने वालों के प्रति कोई शिकायत नहीं होगी क्योंकि हम सभी लोगों को सोच और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिए जिसमे हम अपने ढंग से चीज़ों को देखें, परखें और निर्णय करें. लेकिन जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं यह यह भली-भाँती जानता हूँ कि मैं इसके अलावा किसी और ढंग से प्रतिक्रिया नहीं कर सकता था.

मैं पुनः इस कथा के कुछ अधिक विस्तारपूर्ण होने के सम्बन्ध में क्षमायाचना करता हूँ लेकिन मैं इस बात की कोई जिम्मेदारी नहीं लेता हूँ यदि आपमें से किसी व्यक्ति को इतना लंबा-चौड़ा आलेख पढ़ने के बाद ऐसा महसूस हो कि वे ठगे गए या उनका समय जाया हो गया या यह बिलकुल बकवास था.

मैं यह प्रकरण में पिछले तीन सालों से लगा हूँ और अभी तक मुझे न्याय मिलता नहीं दिखता है. शायद यही कारण है कि मेरी तमाम कोशिशों और प्रयत्नों के बाद भी दो वरिष्ठ रेलवे अधिकारियों के खिलाफ मेरी शिकायत पर अभी कोई कार्यवाही नहीं होती दिखती है. इसके विपरीत अब तक जिस प्रकार से सम्बंधित अधिकारियों ने आचरण किया है उससे कुछ ऐसा ही सन्देश जाता दिखता है मानो ये सभी एक समूह के रूप में परस्पर हित-सिद्धि के लिए कार्य करते हों.

यह मेरे स्तर से ऊपर की एक बड़ी बात कही जा सकती है पर इस मामले में मेरा जो व्यक्तिगत अनुभव हुआ है संभव है वह सामान्य रूप से जनता की शिकायतों के निस्तारण का नजरिया प्रदर्शित करता हो.

इस घटना की शुरुआत लगभग तीन साल पहले 01/06/2010 को उस समय हुई थी जब मैं लखनऊ के गोमतीनगर रेलवे स्टेशन पर अपनी पत्नी का एक टिकट वापस करने गया था. उस समय मैं आईआईएम लखनऊ में स्टडी लीव पर था. वहाँ टिकट खिडकी पर एक ऐसे अधिकारी थे जो लगभग सभी लोगों से अकारण दुर्व्यवहार कर रहे थे और उन्होंने मेरे साथ भी ऐसा ही किया.

मुझे यह बात अच्छी नहीं लगी और मैंने वहीँ किसी रेलवे कर्मी से डीआरएम, एनईआर, लखनऊ का सरकारी मोबाइल नंबर लिया और अपने मोबाइल नंबर से वहीँ स्टेशन से ही लगभग 1.30 बजे से 2 बजे के बीच उनसे इस सम्बन्ध में बात की और उन्हें पूरी घटना बतायी

मैंने साथ ही यह भी उचित समझा कि इस पूरे प्रकरण को लिखित रूप से वरिष्ठ अधिकारियों के सामने प्रस्तुत किया जाए. अतः मैंने वहीँ स्टेशन पर ही एक शिकायत लिखी और उस पर वहाँ टिकट कटाने आये पांच अन्य लोगों से भी हस्ताक्षर कराये. चूँकि तमाम लोग उन अधिकारी महोदय के आचरण से वैसे ही भरे-परे थे, अतः उन लोगों ने बिना ना-नुकूर किये तुरंत हस्ताक्षर कर दिये.
मैं उसी दिन (01/06/2010) को करीब 4 बजे शाम को अशोक मार्ग स्थित एनईआर के डीआरएम ऑफिस गया और वहाँ डीआरएम के पीए से मिला और उनसे निवेदन करके अपने प्रार्थनापत्र का एक फोटोकॉपी भी करवाया लिया ताकि भविष्य के लिए कोई साक्ष्य रहे.

मैं पीए के ठीक सामने वाले डीआरएम के चैम्बर में उनसे मिला. उनका व्यवहार सामान्य तौर पर बहुत अच्छा नहीं दिखा और इस बात की प्रशंसा करने कि कोई व्यक्ति उनके विभाग की सही स्थिति का ब्यौरा ले कर उनके सामने उपस्थित हुआ है, वे मुझ पर इस बात के लिए कुछ नाराज़ से दिखे कि मैं नाहक यह शिकायत ले कर क्यों चला आया हूँ. उन्होंने कुछ तो ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो नितांत अवांछनीय थे. बातचीत के अंत में उन्होंने मुझे आदेशित कर दिया कि मैं बगल के कमरे में बैठी सीनियर डीसीएम से मिलूं और उन्हें प्रार्थनापत्र सुपुर्द कर दूँ.

मैं सीनियर डीसीएम से मिला जिन्होंने मुझसे मेरा शिकायतीपत्र ले लिया और मुझे आश्वस्त किया कि इसमें सही कार्यवाही होगी. डीआरएम ऑफिस से लौटने के बाद मैंने हस्ताक्षर बनाने वाले कुछ लोगों को फोन से इस मुलाक़ात के बारे में भी बताया जिन्होंने इस पर प्रसन्नता एवं संतोष जाहिर किया.

जब एक माह तक कोई कार्यवाही नहीं होती दिखी तो मैंने डीआरएम, एनईआर, लखनऊ को आरटीआई एक्ट के तहत अपने पत्र दिनांक 24/06/2010 (जिसमे मैंने यह तथ्य भी उल्लिखित किया कि मैंने अपना शिकायती पत्र डीआईएम के कहने पर सीनियर डीसीएम को दे दिया था) के माध्यम से इस पत्र पर हुई कार्यवाही के सम्बन्ध में पूछा. पुनः प्रथम अपीलीय अधिकारी और बाद में केन्द्रीय सूचना आयुक्त के स्तर पर पत्राचार करने के बाद ही मुझे इस शिकायत के सम्बन्ध में कतिपय अभिलेख मिल सके लेकिन मैं पूरी स्थिति से अवगत नहीं हो सका.

जब डीआरएम के स्तर पर कोई कार्यवाही होती नहीं दिखी तो मैंने चेयरमैन, रेलवे बोर्ड को पत्र लिखा- पहले दिनांक 14/08/2010, फिर 25/09/2010 तथा अंत में दिनांक 23/12/2010 को. इन सभी पत्रों में मैंने डीआरएम से सम्बंधित शिकायतों का विशेष कर उल्लेख किया था.

इसके बाद मुझे लखनऊ के एक रेल अधिकारी ने संपर्क किया और बताया कि रेलवे बोर्ड से मेरी एक शिकायत दिनांक 25/09/2010 प्राप्त हुई है जिस पर जांच चल रही है, जो उसे सौंपी गयी है.
मैंने दिनांक 09/12/2010 के अपने बयान द्वारा पुनः लखनऊ एनईआर के डीआरएम तथा अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका पर विशेष रूप से निम्न दो बिंदुओं पर प्रकाश डाला- (एक) डीआरएम के अनुपक्त आचरण पर (दो) इन अधिकारियों की मेरे शिकायत प्रस्तुत करने के बाद दिखलाई गयी निष्क्रियता पर. साथ ही मैंने यह भी कहा कि अब मैं रेलवे स्टेशन पर उस कनिष्ठ अधिकारी के खिलाफ नहीं बल्कि इस प्रकार अपना कर्तव्य नहीं निभाने वाले वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही किये जाने का निवेदन करता हूँ.

चूँकि इस प्रकरण में जांचकर्ता अधिकारी निश्चित रूप से डीआरएम और सीनियर डीसीएम के अधीनस्थ अधिकारी थे, अतः जैसा कि अपेक्षित था उन्होंने अपनी जांच में मात्र रेलवे स्टेशन के अधिकारी की भूमिका पर ही टिप्पणी की और उन्हें दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध कार्यवाही की अनुशंसा की लेकिन डीआरएम और सीनियर डीसीएम के सम्बन्ध में कोई भी बात नहीं कही, जैसा कोई भी अधीनस्थ अधिकारी स्वाभाविक रूप से बर्ताव करेगा.

इधर मैं मामले का लगातार पीछा करता रहा और पुनः केंद्रिय सूचना आयोग के हस्तक्षेप से मुझे एनईआर के जन सूचना अधिकारी के पत्र दिनांक 12/07/2011 द्वारा यह ज्ञात हुआ कि सरकारी अभिलेखों में मेरी शिकायत दिनांक 02/06/2010 डीआरएम कार्यालय में उपलब्ध ही नहीं है.
इस प्रकार मुझे पहली बार ज्ञात हुआ कि जो शिकायत मैंने पहले डीआरएम और बाद में उनके कहने पर सीनियर डीसीएम के हाथ में दिया था वह अभिलेख पर लाया ही नही गया था और संभवतः कहीं फ़ेंक दिया गया था. अब तक मैं यही सोचता रहा था कि आलस्य या अकर्मण्यता अथवा सहयोग की भावना में डीआरएम कार्यालय के स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी पर यहाँ तो बात ही कुछ और थी.

वरिष्ठ अधिकारियों के इस आचरण से मुझे सचमुच बहुत कष्ट हुआ और मैंने चेयरमैन, रेलवे बोर्ड को पुनः अपने पत्र दिनांक 25/07/2011 द्वारा निवेदन किया कि मेरे पास इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि मैं इन वरिष्ठ अधिकारियों से इनके कार्यालय में मिला था और मैं उनके अनुचित आचरण और मेरी शिकायत के फेंके जाने के बारे में अलग से जांच चाहता हूँ.

इस पर मुझे जीएम (सतर्कता), गोरखपुर का पत्र दिनांक 16/09/2011 प्राप्त हुआ जिसमे यह कहा गया कि मैं अपनी शिकायत से सम्बंधित सभी उपलब्ध साक्ष्य, गवाह आदि के विषय में उन्हें अवगत कराऊं. इस पत्र में यह भी कहा गया कि यदि मेरी शिकायत झूठी अथवा किसी गलत उद्देश्य से प्रेरित पायी जायेगी तो मेरे खिलाफ आपराधिक धाराओं में भी कार्यवाही की जा सकती है.

मैंने अपने पास उपलब्ध सभी अभिलेख और गवाहों की सूची अपने पत्र दिनांक 02/10/2011 द्वारा उन्हें प्रेषित कर दिया. मैंने मेरी मूल शिकायती पत्र के पांच गवाहों के अलावा छठे गवाह के रूप में उस आदमी का नाम लिखा जो मेरे साथ डीआरएम कार्यालय गए थे.

इसके बाद मुझे जीएम (सतर्कता) कार्यालय से कोई भी उत्तर नहीं मिला यद्यपि मैं उन्हें लगातार अनुस्मारक भेजता रहा.

कोई अन्य उपाय नहीं होने पर मैंने रेलवे मंत्री, भारत सरकार के कार्यालय को अपने पत्र दिनांक 05/01/2012, 13/02/2012 तथा 20/03/2012 के माध्यम से संपर्क किया पर इन पर भी कुछ होता नहीं दिखा.

फिर मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय को दिनांक 03/08/2012, 01/10/2012, 16/11/2012 और 23/01/2013 को पत्र भेजे जिन्हें पीएमओ ने रेलवे बोर्ड तथा अन्य को आवश्यक कार्यवाही हेतु प्रेषित किया पर यहाँ से भी मुझे कोई सूचना नहीं मिली.

अब इस मामले में मुझे आरटीआई के माध्यम से रेलवे वोर्ड और जीएम ऑफिस, गोरखपुर से दो पत्र मिले हैं जिनसे कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ हासिल हुई हैं.

रेलवे बोर्ड द्वारा दिनांक 15/04/2013 को प्रेषित आरटीआई सूचना के अनुसार रेलवे बोर्ड द्वारा बार-बार जीएम, पूर्वोत्तर रेल, गोरखपुर को उचित कार्यवाही हेतु आदेशित किया गया पर जीएम कार्यालय द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी. दिनांक 02/04/2013 को रेलवे बोर्ड द्वारा जीएम, गोरखपुर को भेजे पत्र में लिखा गया था-“ जीएम, पूर्वोत्तर रेल को आदेशित किया गया था कि इस प्रकरण में न्यायोचित कार्यवाही करते हुए शिकायतकर्ता को सूचित किया जाए और साथ ही रेलवे बोर्ड को भी अवगत कराया जाए. लेकिन आज तक बोर्ड को इस बारे में कोई सूचना नहीं मिली है.” इसी प्रकार यह भी कहा गया-“ जीएम को पुनः आदेशित किया जाता है कि इस बारे में कार्यवाही कर शिकायतकर्ता को सूचना दी जाए.’

रेलवे बोर्ड द्वारा बार-बार ऐसे निर्देश के बाद भी मुझे आज तक पूर्वोत्तर रेल से इस प्रकार की कोई भी आधिकारिक सूचना नहीं मिली है.

पूर्वोत्तर रेल, गोरखपुर की आरटीआई सूचना से अन्य महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये. इस प्रकरण के नोटशीट से यह ज्ञात हुआ कि इस मामले में पूर्व में ही जीएम (सतर्कता) कार्यालय से जांच की जा चुकी है. जांचकर्ता अधिकारी ने यह पाया था कि गोमतीनगर रेलवे स्टेशन के अशिकारी ने वास्तव में अभद्रता की थी और उन्हें इसके लिए लघु दंड दिया जा चुका है

लेकिन जहाँ तक डीआरएम और सीनियर डीसीएम को शिकायत सौंपे जाने और उनके स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं किये जाने सम्बंधित शिकायत का मामला है, जांचकर्ता अधिकारी पक्षपातपूर्ण भूमिका में खड़े दिखाई देते हैं.

उनकी जांच रिपोर्ट कहती है-“ तथ्य यह है कि दिनांक 02/06/2010 का शिकायती पत्र डिविजन के अभिलेखों में उपलब्ध नहीं है.” साथ ही यह भी कि-“जहाँ तक दूसरे आरोप का प्रश्न है, डिविजन में कोई ऐसे अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं जिनके आधार पर यह दिखाया जाए अथवा साबित हो सके कि दिनांक 02/06/2010 को वास्तव में सीनियर डीसीएम को डीआरएम, लखनऊ के आदेशों के क्रम में कोई शिकायती पत्र दिया गया था जब श्री ठाकुर कथित रूप से डीआरएम से मिलने आये थे. साथ ही शिकायतकर्ता ने कोई ऐसा अभिलेखीय साक्ष्य नहीं प्रस्तुत किया है जो सीनियर डीसीएम को शिकायती पत्र दिये जाने के बारे में स्थिति स्पष्ट करे.”

जांच रिपोर्ट के अनुसार-“ अतः किसी अभिलेखीय साक्ष्य के अभाव में इस प्रकार के आरोपों को बाद के समय में साबित कर पाना बहुत दिक्कततलब है.” जांच अधिकारी के अनुसार वैसे भी अधीनस्थ अधिकारी को सजा दे दी गयी है और इस तरह “मुख्य प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है”. जांच अधिकारी ने इसके लिए दो रेलवे अधिकारियों के बयान को विशेष रूप से उद्धृत किया- डीआरएम के निजी सहायक और सीनियर डीसीएम के निजी सहायक और दोनों के दोनों में “किसी भी ऐसे अभिलेख के मिलने से इनकार किया.”

मजेदार बात यह कि जांचकर्ता अधिकारी स्वयं भी यह कहते दिखते हैं-“ अतः यह संभव है कि श्री ठाकुर डीआरएम से मिले हों और उनके कहने पर सीनियर डीसीएम अथवा अन्य अधिकारियों को शिकायत दिनांक 02/06/2010 दी हो पर किसी साक्ष्य के अभाव में यह आरोप प्रमाणित नहीं होता हो.”

अतः जांचकर्ता अधिकारी ने इस प्रकरण को समाप्त करने की अनुशंसा की जिस पर पूर्वोत्तर रेल के वरिष्ठ अधिकारी भी सहमत दिखे.

यहां कई महत्वपूर्ण प्रश्न स्वयं खड़े हो जाते हैं जिन्हें प्रस्तुत करना चाहूँगा-
(a) क्या कारण था कि मेरे द्वारा डीआरएम और सीनियर डीसीएम को दी गयी शिकायत पर तब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई जब तक इस सम्बन्ध में रेलवे बोर्ड ने संज्ञान नहीं लिया?
(b) रेलवे बोर्ड ने इस बात का संज्ञान क्यों नहीं लिया कि यह शिकायत डीआरएम और सीनियर डीसीएम के खिलाफ थी और इस कारण इसकी जांच उसी डिविजन में इन अधिकारियों के अधीनस्थ अधिकारी से करवाया जाना उचित नहीं था?
(c) क्या कारण था कि यह शिकायत डीआरएम कार्यालय में डीआरएम और सीनियर डीसीएम से बहुत कनिष्ठ अधिकारी को सौंपी गयी जबकि यह शिकायत इन वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ थी?
(d) लखनऊ डिविजन के जांचकर्ता अधिकारी ने यह तथ्य अपनी जांच में क्यों नहीं उद्धृत किया कि शिकायतकर्ता ने डीआरएम और सीनियर डीसीएम के खिलाफ भी आरोप लगाए हैं और अधीनस्थ होने के नाते वह उनकी जांच करने का हकदार नहीं है?
(e) जांचकर्ता अधिकारी ने अपनी जांच में डीआरएम और सीनियर डीसीएम की भूमिका पर कोई भी टिप्पणी या कोई प्रकाश क्यों नहीं डाला जबकि मैंने मैंने बयान दिनांक 09/12/2010 में खास कर इन दोनों अधिकारियों के बारे में खुली शिकायत की थी और रेलवे स्टेशन के अधीनस्थ अधिकारी को माफ करने की अनुशंसा की थी?
(f) रेलवे बोर्ड इस मामले में डीआरएम और सीनियर डीसीएम की शिकायत के विषय में तब तक चुप क्यों रहा जब तक मैंने यह शिकायत पीएमओ में नहीं की और पीएमओ द्वारा रेलवे बोर्ड से जांच किये जाने के आदेश नहीं हुए?
(g) क्या पूर्वोत्तर रेलवे के जिस अधिकारी ने बाद में इस शिकायत की जांच की वे डीआरएम और सीनियर डीसीएम से वरिष्ठ थे अथवा कनिष्ठ?
(h) जांचकर्ता अधिकारी ने इतने लंबे समय तक जांच लंबित क्यों रखी?
(i) जांचकर्ता अधिकारी ने मेरे अर्थात शिकायतकर्ता अधिकारी के बयान क्यों नहीं लिए?
(j) जब जांचकर्ता अधिकारी ने मुझसे सभी अभिलेखों और गवाहों की सूची मांगी और मैंने उन्हें ये सभी उपलब्ध भी कराये तो उन्होंने इन तथ्यों को नज़रंदाज़ क्यों किया और उन गवाहों के कथन अंकित करना उचित क्यों नहीं समझे?
(k) जांचकर्ता अधिकारी अथवा पूर्वोत्तर रेलवे के जीएम ने मुझे रेलवे बोर्ड के आदेशानुसार जांच रिपोर्ट क्यों नहीं प्रदान किया?
(l) जांचकर्ता अधिकारी अथवा पूर्वोत्तर रेलवे के जीएम ने रेलवे बोर्ड तक को उनके आदेशानुसार जांच रिपोर्ट क्यों नहीं प्रदान किया?
(m) इस मूलभूत बात तक को संज्ञान में क्यों नहीं लिया गया कि मैंने दिनांक 24/06/2010 को डीआरएम कार्यालय में प्रेषित अपने आरटीआई प्रार्थनापत्र तक में डीआरएम और सीनियर डीसीएम से मिलने और उनको शिकायत की प्रति सौंपे जाने की बात कही थी?
(n) इस मूलभूत बात तक को संज्ञान में क्यों नहीं लिया गया कि मैंने डीआरएम कार्यालय में कोई कार्यवाही नहीं होते देख दिनांक 14/08/2010 को चेयरमैन, रेलवे बोर्ड को प्रेषित अपने शिकायती प्रार्थनापत्र में भी डीआरएम और सीनियर डीसीएम से मिलने और उनको शिकायत की प्रति सौंपे जाने की बात कही थी?
(o) इस मूलभूत बात तक को संज्ञान में क्यों नहीं लिया गया कि एक आदमी लगभग शुरू से ही डीआरएम और सीनियर डीसीएम जैसे दो वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बार-बार यदि एक ही शिकायत कर रहा है तो संभव है कि उसमे कोई सच्चाई हो?
(p) जब मैंने डीआरएम और सीनियर डीसीएम को दिये गए मूल प्रार्थनापत्र की छायाप्रति अपने शिकायतों के साथ लगातार संबद्ध किया तो इस तथ्य को भी क्यों दरकिनार किया गया?
(q) यदि मैं लगभग शुरू से ही डीआरएम और सीनियर डीसीएम जैसे दो वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बार-बार यदि एक ही शिकायत कर रहा है तो या तो इस बारे में मेरी आतंरिक मंशा अथवा मेरी दुर्भावना के विषय में टिप्पणी की जाती और तदनुरूप जीएम (सतर्कता) के पत्र दिनांक 16/09/2011 के अनुरूप मेरे विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही की जाती या मेरी बात मानी जाती. लेकिन यहाँ जांचकर्ता अधिकारी ने एक तीसरा मार्ग क्यों निकाल लिया कि संभव है कि मैं इन अधिकारियों से मिला होऊं और उनके प्रार्थनापत्र दिया होऊं पर साक्ष्यों के अभाव में यह प्रमाणित नहीं हो रहा है?
(r) सम्बंधित जांच अधिकारी ने मुझे वांछित अभिलेख अथवा साक्ष्य प्रस्तुत करने हेतु अवसर क्यों नहीं दिया?
(s) जब मूल प्रश्न ही यही था कि शिकायत अभिलेखों में नहीं रखी गयी और उठा कर फ़ेंक दी गयी तो जांचकर्ता अधिकारी ने यह कैसे कह दिया कि चूँकि शिकायत के दिये जाने के सम्बन्ध में कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं हैं, अतः यह माना जा सकता है कि ऐसी शिकायत कभी दी ही नहीं गयी?
(t) इस मामले में आरोपित डीआरएम और सीनियर डीसीएम के बयान तक क्यों नहीं लिए गए?

इस सारे तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए मैंने एक बार पुनः प्रधान मंत्री कार्यालय और रेलवे मंत्रालय को पत्र प्रेषित किया है. इसमें मेरा उद्देश्य अधिकारियों को दण्डित कराना नहीं है. सच्चाई तो यह है कि मेरा इन अधिकारियों से दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत राग-द्वेष नहीं है. मेरे लिए मुद्दा मात्र न्याय का है. मेरे लिए मुद्दा प्रशासन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का है. यहाँ मेरे लिए यह भी मुद्दा है कि जहाँ एक कनिष्ठ अधिकारी पर कठोर विभागीय कार्यवाही करने में किसी को भी एक पल के लिए भी हिचकिचाहट नहीं हुई, जिसे अच्छी-खासी सजा दे दी गयी पर वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ दी गयी शिकायत पर पूरा अमला एकजूट सा हो गया दिखता है और इससे कुछ ऐसे सन्देश आते दिखते हैं मानो इन सभी लोगों की यह व्यक्तिगत जिम्मेदारी हो कि इनके बीच का कोई बड़ा अधिकारी ऐसी “छोटी-छोटी” बातों में दण्डित ना हो.

मैं जानता हूँ कि यह एक बहुत लंबी यात्रा हो सकती है और इस बात की भी बहुत अधिक संभावना है कि इसमें अंत तक कोई कार्यवाही ना हो और आम भाषा में मैं खाली हाथ रह जाऊं.

लेकिन बिना परिणाम की चिंता सोचे और बिना इन अधिकारियों के विरुद्ध कोई राग-द्वेष लिए मैं यह प्रकरण तब तक उठाये रखूँगा जब तक यह उच्चतम स्तर पर बंद ना कर दिया जाए अथवा यह अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच जाए.

अमिताभ ठाकुर

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