वैसे तो यह एक तारीख है जो आई और गयी. कब आई, कब
गयी, ज्यादातर लोगों को याद नहीं होगी. वैसे ही जैसे मुझे कई सारी दूसरी तारीखें
याद नहीं रहतीं. आदमी को वही तारीखें याद रह पाती हैं जिनकी उनके लिए अहमियत होती
है- चाहे अच्छी या बुरी.
07/06/1993 अर्थात वर्ष 1993 के जून महीने की सातवीं तारीख मुझे हमेशा याद रहती है. मात्र इसीलिए नहीं
क्योंकि इस रोज मेरी शादी हुई थी. शादी हुई यह मेरे लिए बड़ी बात तो थी पर यह दिन
मेरे लिए यादगार इसीलिए बन गया क्योंकि इस दिन मेरी शादी नूतन से हुई. नूतन जो अब
खुद को नूतन ठाकुर लिखती है, उस समय नूतन कुमारी थी. ऐसा नाम इसीलिए क्योंकि हमारे
बिहार में अकसर अविवाहित लड्कियों के नाम के पीछे कुमारी जोड़ दिया करते हैं. कौमार्य
अथवा कुंवारेपन का, खास कर लड़कियों के परिप्रेक्ष्य में, हमारे समाज में कुछ
ज्यादा ही महत्व दिया जाता है, शायद इसीलिए नाम के साथ भी कुमारी लिखा होता है
ताकि लड़की भी लगातार इस बात को समझती रहे और इस शब्द की मर्यादा निभाते रहे.
सच्चाई यह है कि नूतन
के मामले में मैंने कभी इस विषय पर जानने की कोशिश नहीं की. सच्चाई यह भी है कि मैंने
कभी इस बिंदु को कोई ऐसा महत्व भी नहीं दिया. मुझे इस मामले में तब्बू अभिनीत
संवेदनशील फिल्म अस्तित्व काफी हद तक ठीक लगती है जिसमे स्त्री-पुरुष संबंधों में बाहरी
तत्व के प्रवेश (आकस्मिक, दुर्घटनावश अथवा अन्यथा) पर बड़े विस्तार से काफी
गंभीरतापूर्वक विचार किया गया था. इस मामले में मेरा व्यक्तिगत यह विचार रहा है कि
स्त्री और पुरुष को सदैव प्रयास यही करना चाहिए कि विवाह की गरिमा और परस्पर
विश्वास की भावना को हमेशा दिमाग में रखना चाहिए क्योंकि मेरी राय में विवाहेतर
सम्बन्ध हमेशा अपने साथ कष्ट ले कर ही आते हैं. लेकिन यदि इसमें भूल-चूक लेनी-देनी
हो जाए तो उसे भविष्य के लिए सीख मान कर “आगे की सुधि” लेनी चाहिए ना कि उसी जगह
पर अटक जाना चाहिए. ऐसा इसीलिए क्योंकि पति-पत्नी के रिश्ते से बेहतर, शानदार,
जानदार और सम्पूर्ण रिश्ता शायद इस संसार में कोई दूसरा नहीं है और इसे तब तक नहीं
तोडना चाहिए जब तक वह अनिवार्य ना हो जाए. पर इसके साथ यह भी कहूँगा कि यदि इनमे
से कोई, खास कर पति, यदि दूसरे के साथ क्रूरता, कमीनेपन या अत्याचारी आचरण का
परिचत देता है तो इस रिश्ते को समाप्त करने में एक क्षण की भी देरी नहीं करनी
चाहिए.
जहाँ तक मैंने
जाना शादी के पूर्व नूतन के मामले में कभी ऐसा कुछ था ही नहीं. इसके उलट शादी से
कुछ साल पूर्व मैं एक लड़की (जिसका नाम मैं नहीं बताऊंगा क्योंकि यह ओछापन होगा) के
प्रति बुरी तरह आसक्त अवश्य हुआ था. जब मेरी शादी हुई, उस समय तक भी उस लड़की की खुमारी
पुरी तरह गायब नहीं हुई थी. शायद मेरा आकर्षण एकतरफा ही था क्योंकि मुझे कभी दूसरी
तरफ से विशेष लिफ्ट नहीं मिला था. जो हो मैं शादी के बाद उससे उबर गया लेकिन उस
एकतरफा आकर्षण का अपराधबोध मुझ पर निरंतर सवार रहता था. इस रूप में मैं नूतन के धैर्य,
उदारता, संवेदनशीलता और समझदारी की खुलेआम प्रशंसा करना चाहता हूँ कि जिस दिन
मैंने बड़ी हिम्मत करके बहुत डरते-डराते अपने उस कथित प्रेम के बारे में उसे बताया
उस दिन के बाद उसने कभी दुबारा उसकी चर्चा तक नहीं की और उस प्रकरण को इस प्रकार
लिया मानो कोई बड़ी घटना नहीं रही हो.
मैं अपने सहित हर
व्यक्ति को इस प्रकार की उदारता, पारस्परिक सम्वेदनशीलता, समझ और एक दूसरे की
कमी-बेसी को स्वीकार करने की सलाह दूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि जिस भी दंपत्ति
में दोनों पक्षों का ऐसा आचरण होगा वहाँ बड़ी-बड़ी समस्याएं भी स्वतः ही गायब हो
जायेंगी.
एक और बात मैं अपने
जीवन के इस खास मौके पर सभी लोगों से शेयर करना चाहता हूँ. विवाह के समय नूतन और
मुझमे कमियों को छोड़ कर कुछ भी एक समान नहीं था. मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा, किताबी, सिद्धांतवादी,
स्वपनलोक में विचरण करने वाला प्राणी था तो नूतन बेहद परम्परावादी, साधारण
बुद्धि-विवेक की घरेलु संस्कारों वाली. मैं उसे कई सारे सामाजिक मुद्दों पर आगे बढ़
कर हिस्सा लेने की बात कहता था, वह घर से बाहर निकलने के नाम से ही बिदकती थी. मैं
दिन भर देश-विदेश की बातें करता, नूतन को इनका कोई मतलब ही नहीं दिखता. इसके अलावा
मैं कुछ मूर्ख किस्म का अत्यधिक कल्पनाशील व्यक्ति था जिसकी बातों में आधी हकीकत
और आधा फ़साना मिला रहता. नूतन इसके विपरीत पूरी तरह धरातल पर रहने वाली जीव थी. यदि
हममे कोई समानता थी तो यह कि हम दोनों , जिद्दी, झक्की और लड़ाकू किस्म के थे. जिद
में ना वह पीछे, ना मैं. लड़ने में वह भी आगे, मैं भी.
हम अपनी जिंदगी
में बहुत लड़े, जम कर लड़े. ऐसा भी लड़े कि कई-कई दिनों तक बात नहीं हुई. ऐसा भी लड़े
कि लगा कि आज तलाक कि कल तलाक. आपस में बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ, गंभीर दोषारोपण. पूरा
माहौल विषाक्त, ग़मगीन. बच्चे एकदम सहमे, सकुचाए, डरे हुए. इसके बाद भी हम निरंतर
साथ रहे. और मजेदार यह भी कि हम लड़ते भी आपस में ही थे. लड़ते समय भी हम अलग नहीं
होते. उसी पलंग पर, उसी कमरे में बैठे लड़ते और खूब लड़ते.
नूतन को मेरी
बहुत सी बातें पसंद नहीं थी पर समय के साथ हमारे विचार पास आते गए. समय के साथ वह
मुझे और मैं उसे कई गुना बेहतर पहचानने लगा. फिर धीरे-धीरे वह समय भी आ गया जब हम
महीनों नहीं लड़े. और अव कई सालों से देखने वाले लोग यही कहते हैं कि हम दोनों
पति-पत्नी एक सा ही सोचते और कहते हैं.
हम लोग इतना झगड़ने
पर फिर भी पास और साथ कैसे रह पाए और शनैः-शनैः नजदीक ही आते गए, इसका मेरी निगाह
में एक कारण यह रहा कि हमारे बीच कोई तीसरा (पुरुष अथवा स्त्री) नहीं आ पाया. इसीलिए
“तुम्ही से मुहब्बत तुम्ही से लड़ाई” का हमारा मामला चोखा चलता गया. दूसरा कारण यह
रहा कि हम दोनों निरंतर एक दूसरे को प्यार करते रहे. नूतन मुझसे लाख लड़ लेती पर
यदि कोई तीसरा, चाहे वह घर का ही क्यों ना हो, यदि मेरी अफलातूनी हरकतों, खयाली
पुलावों और समाजधर्मिता की बुराई करता तो नूतन पूरी ताकत से मेरा पक्ष ले कर खड़ी
हो जाती. इसके विपरीत मैं उसे उस हद तक नहीं बचाता और कई बार उसकी बुराई भी कर
दिया करता.
आगे किसकी कितनी
जिंदगी है और हमारी जिंदगी किस राह जायेगी, यह तो अल्लाह ही जाने पर इतना अवश्य है
कि नूतन से मुझे बीस सालों में जो कुछ भी मिला वह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी नेमत
है. मैंने यथासंभव अपने मन की बात अपने जीवन के इस खास मुकाम पर आपके सामने रखने
की कोशिश की है. इसमें उद्देश्य अपनी जिंदगी की यादों को ताजा करना भी है और इसी
बहाने पति-पत्नी के संबंधों पर हल्का सा लेक्चर भी देना है, जिससे शायद मेरी कही
बातें मेरी तरह लड़-झगड रही दंपत्ति के कुछ काम आ जाए.
अमिताभ ठाकुर
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