Information Commission- Issuing contempt notice without being a Court ?
Many a times we hear about an official authority doing something much
beyond his legal authorities which would prima-facie be considered illegal.
Police department is generally considered one of the major defaulters in this
regards. Recently we saw something in the UP State Information Commission which
is again illegal, as per our legal understanding.
As far as we know, the Commission is not a court, at max it is a
quasi-judicial body. Courts have many such rights as power to review, power of
contempt of court etc which these quasi-judicial authorities do not have.
The Supreme Court has now settled this issue by saying again and again
in its decisions that courts and quasi-judicial authorities cannot be placed on
the same legal footing.
Recently the Supreme Court in its review order in Union of India vs Namit Sharma said that the Information Commission does not decide a dispute between two or more parties concerning their legal rights other than their right to get information in possession of a public authority. This function obviously is not a judicial function, but an administrative function conferred by the Act on the Information Commissions. Information Commission, therefore, while deciding this lis does not really perform a judicial function, but performs an administrative function in accordance with the provisions of the Act.”
Despite this CIC Ranjit Singh Pankaj and other Information Commissions
are undertaking contempt proceedings without any legal rights
We came to know of this when we were presented three cases related with
RTI activists Mangat Singh Tyagi, who was recently murdered and Ashok Kumar
Goyal, recently arrested for allegedly creating ruckus in the Commission, where
Sri Pankaj issued notice under section 345 CrPC for alleged offence under
section 228 IPC.
Section 345 CrPC empowers
a Civil, Criminal or
Revenue Court to cause the offender of section 228 IPC and other such offences to
be detained in custody and may, at any time before the rising of the Court on
the same day, take cognizance of the offence and, after giving the offender a
reasonable opportunity of showing cause sentence the offender to Rs 200 fine or
1 month imprisonment. But as stated
above, the Information Commission is not
a court in any manner, as very clearly stated by the Supreme Court.
Hence the act of initiate contempt proceedings under section
345 CrPC seems to be prima-facie incorrect and hence I with wife Nutan have written
to Governor of UP to enquire into our facts and to restrict the Information
Commissioners from acting beyond their authority, if these are found correct.
Let all public authorities kindly adhere to the laws of
the land for avoiding judicial chaos.
बिना
कोर्ट हुए अवमानना नोटिस दे रहा सूचना आयोग ?
हमने
यह कई बार सुना है कि कई सरकारी प्राधिकारी बिना कानूनी अधिकार के ही बहुत सारे
ऐसे काम करते रहते हैं जो प्रथमद्रष्टया गैर-कानूनी माना जाएगा. पुलिस विभाग तो
इसके लिए आम लोगों में बदनाम है है. पर हाल में हमने उस उत्तर प्रदेश राज्य सूचना
आयोग में भी कुछ ऐसा देखा, जो हमारी कानूनी समझ के अनुसार पूरी तरह गलत है.
जहां
तक हमारी जानकारी है राज्य सूचना आयोग कानूनन कोर्ट ही नहीं है पर यह मात्र अधिकतम
एक अर्ध-न्यायिक संगठन है. कोर्ट को बहुत सारे स्पष्ट कानूनी अधिकार होते हैं
जिनमे रिव्यू का अधिकार, अवमानना का अधिकार आदि भी शामिल हैं जो अर्ध-न्यायिक
संस्था को नहीं होते.
इस
सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई सारे निर्णयों में कहा है और यह बात
स्पष्ट कर दिया है कि कोर्ट और अर्ध-न्यायिक संस्थाओं को एक कानूनी दृष्टि से नहीं
देखा जा सकता है.
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में भारत सरकार बनाम नमित
शर्मा की रिव्यू याचिका में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सूचना आयोग किसी भी प्रकार
से न्यायिक संस्था नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार वह प्राथमिक तौर पर
प्रशासनिक कार्य करता है और उसके कार्य को कोई न्यायिक कार्य नहीं कहा जा सकता.
इसके
बावजूद सूचना आयोग के मुख्य आयुक्त रणजीत सिंह पंकज सहित कुछ अन्य आयुक्त बिना
अधिकार के ही लोगों के खिलाफ कोर्ट के अवमान की कार्यवाही कर रहे हैं.
हमें
यह जानकारी तब मिली जब हमें आरटीआई कार्यकर्ता मंगत सिंह त्यागी, जिनकी हाल में हत्या
हो गयी और अशोक कुमार गोयल, जिन्हें हाल में आयोग में घटी कथित दुर्व्यवहार की घटना
में गिरफ्तार किया गया, से जुड़े श्री पंकज द्वारा धारा 228 आईपीसी के अपराध के लिए धारा 345 सीआरपीसी में जारी नोटिस के तीन दृष्टांत की
कॉपी दी गयी.
दरअसल धारा 345 सीआरपीसी में कोई भी सिविल, दांडिक अथवा राजस्व कोर्ट आईपीसी की धारा 228 के अलावा अन्य कुछ अपराधों में किसी अभियुक्त को हिरासत में ले सकता है और कोर्ट के उठने तक उसे हिरासत में रखा जा सकता है और उसके बाद अभियुक्त को कारण बताने का अवसर देने के बाद दो सौ रुपये तथा फाइन नहीं देने पर एक माह के कारावास की सजा दे सकता है. लेकिन यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि यह अधिकार मात्र सिविल, दांडिक अथवा राजस्व कोर्ट को है पर जबकि जैसा मैंने ऊपर कहा, सूचना आयोग किसी भी प्रकार से कोर्ट नहीं है. अतः उसके द्वारा इस प्रकार अधिकार के बाहर जा कर इस धारा में नोटिस जारी करना प्रथमद्रष्टया विधि के प्रावधानों के विपरीत जान पड़ता है.
मैंने और नूतन ने इस
सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को इन तथ्यों से अवगत कराते हुए हमारी बात
सही पाए जाने पर सूचना आयुक्तों को ऐसी कार्यवाही करने से रोकने की प्रार्थना की
है.
Copy of complaint---
सेवा में,
मा० राज्यपाल महोदय,
उत्तर प्रदेश,
लखनऊ
मा० राज्यपाल महोदय,
उत्तर प्रदेश,
लखनऊ
विषय- मा० उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के कतिपय आयुक्तगण द्वारा विधिविरुद्ध आचरण को रोके जाने हेतु
महोदय,
हम अमिताभ ठाकुर एवं डॉ नूतन ठाकुर मा० मुख्य सूचना आयुक्त, उत्तर प्रदेश द्वारा धारा 345 सीआरपीसी सहपठित धारा 228 आईपीसी के अंतर्गत प्रेषित तीन नोटिस का उल्लेख करते हुए उनकी प्रति प्रस्तुत कर रहे हैं जो हमें कतिपय आरटीआई कार्यकर्ताओं द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
इनमे
प्रकीर्ण सिविल अवमानना वाद संख्या 170A/01/उ०प्र०सू०अ०/2013 में दिनांक 03/06/2013 को आरटीआई कार्यकर्ता (अब स्वर्गीय) श्री मंगत
सिंह त्यागी, ग्राम और पोस्ट बनखेड़ा, हापुड़ को वाद संख्या 1/158/सी/2013 में दिनांक 17/05/2013 के श्री त्यागी के पत्र में प्रयुक्त कतिपय
वाक्य के विषय में यह कहा गया कि यह कथन धारा 345 सीआरपीसी सहपठित धारा 228 आईपीसी की परिधि में न्यायिक कार्य करने में
पीठासीन अधिकारी का अपमान है, अतः श्री त्यागी दिनांक 19/10/2013 तक अपनी स्थिति स्पष्ट करें कि क्यों ना
उन्हें उपरोक्त धाराओं में दण्डित किया जाए.
दूसरी
नोटिस पत्रांक 1181/रा०सू०अ०/2014 दिनांक 22/04/2014 है जो एक अन्य आरटीआई कार्यकर्ता श्री अशोक
कुमार गोयल, रहमानपुर, चिनहट, लखनऊ को शिकायत संख्या 1/47/सी/2014 की सुनवाई दिनांक 16/04/2014
को उनके पत्र संख्या 131 में मा० आयोग की कथित अनुचित कार्यप्रणाली के
विषय में लिखित शब्दों और मा० मुख्य आयुक्त की निष्पक्षता पर लगाए गए प्रश्नचिन्ह
के सम्बन्ध में पीठासीन अधिकारी का अपमान और अवमानना बताते हुए उपरोक्त धाराओं में
कारण बताओ नोटिस से सम्बंधित है जिसमे दिनांक 12/05/2014 तक स्पष्टीकरण माँगा गया है.
तीसरी
नोटिस भी समसंख्यक पत्रांक द्वारा श्री अशोक कुमार गोयल को दी गयी है जिसमे वाद
संख्या 1/471/सी/2014 में भी वही बात कहे जाने के सम्बन्ध में उसे
अवमाननापूर्ण बताते हुए दण्डित करने के सम्बन्ध में कारण बताओ नोटिस है.
धारा 228 आईपीसी निम्नवत
है-“Section
228 in The Indian Penal Code- Intentional
insult or interruption to public servant sitting in judicial
proceeding.—Whoever intentionally offers any insult, or causes any interruption
to any public servant, while such public servant is sitting in any stage of a
judicial proceeding, shall be punished with simple imprisonment for a term
which may extend to six months, or with fine which may extend to one thousand
rupees, or with both”
धारा 345 सीआरपीसी निम्नवत
है-“Procedure
in certain cases of contempt.- (1)
When any such offence as is described in section 175, section 178, section 179,
section 180 or section 228 of the Indian Penal Code (45 of 1860 ), is committed
in the view or presence of any Civil, Criminal or Revenue Court, the Court may
cause the offender to be detained in custody and may, at any time before the
rising of the Court on the same day, take cognizance of the offence and, after
giving the offender a reasonable opportunity of showing cause why he should not
be punished under this section, sentence the offender to fine not exceeding two
hundred rupees, and, in default of payment of fine, to simple imprisonment for
a term which may extend to one month, unless such fine be sooner paid. (2) In every such case the Court shall record the facts
constituting the offence, with the statement (if any) made by the offender, as
well as the finding and sentence. (3) If the offence is under section 228 of the Indian Penal
Code (45 of 1860 ), the record shall show the nature and stage of the judicial
proceeding in which the Court interrupted or insulted was sitting, and the
nature of the interruption or insult”
अतः धारा 228 आईपीसी के लिए judicial
proceeding आवश्यक है जो सीआरपीसी की धारा 2(i) में परिभाषित है-“judicial proceeding” includes any proceeding
in the course of which evidence is or may be legally taken on oath
कृपया सादर अवगत कराना है कि मा० सूचना आयोग द्वारा द्वितीय अपील में सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 19 में किसी भी प्रकार से कोई भी साक्ष्य शपथपत्र पर लिए जाने की व्यवस्था नहीं है जैसा धारा 19 के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है. मात्र धारा 18 में किसी जन सूचना अधिकारी की शिकायत करने पर शपथ पर साक्ष्य लेने का अधिकार है. अतः 19 में हुए किसी द्वितीय अपील में मा० आयोग किसी भी प्रकार से न्यायिक प्रक्रिया/कार्यवाही में नहीं आता दीखता है, जिसके कारण धारा 228 आईपीसी धारा 19 आरटीआई एक्ट में की जा रही कार्यवाही पर लागू ही नहीं होता है. हमारी जानकारी के अनुसार उपरोक्त तीनों प्रकरण धारा 19 के अंतर्गत प्रस्तुत द्वितीय अपील थे ना कि धारा 18 आरटीआई एक्ट में प्रस्तुत कोई शिकायत, जिसपर धारा 228 आईपीसी लागू ही नहीं होता.
इसके अलावा धारा 345 सीआरपीसी के लिए यह नितांत आवश्यक है कि यह in the view or presence of any Civil, Criminal or Revenue Court (अर्थात किसी सिविल, दांडिक अथवा रासज्व कोर्ट के समक्ष) का मामला हो और यह अधिकार मात्र इन कोर्ट को है.
सादर अवगत कराना है कि मा० सूचना आयोग किसी भी प्रकार से कोर्ट नहीं है जो बात मा० सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू याचिका संख्या 2309/2012 इन: रिट याचिका (सिविल) संख्या 210/2012 (भारत सरकार बनाम नामित शर्मा) में मा० सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्टतया अंकित किया है-“Hence, the functions of the Information Commissions are limited to ensuring that a person who has sought information from a public authority in accordance with his right to information conferred under Section 3 of the Act is not denied such information except in accordance with the provisions of the Act.” साथ ही मा० सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- “While deciding whether a citizen should or should not get a particular information "which is held by or under the control of any public authority", the Information Commission does not decide a dispute between two or more parties concerning their legal rights other than their right to get information in possession of a public authority. This function obviously is not a judicial function, but an administrative function conferred by the Act on the Information Commissions.”
मा० सर्वोच्च
न्यायालय से स्पष्ट किया-“The Information Commission,
therefore, while deciding this lis does
not really perform a judicial function, but
performs an
administrative function in accordance with the
provisions of the
Act.” मा० सर्वोच्च न्यायालय
ने स्पष्ट किया-“But this
does not mean that the Information Commissioners are
like Judges or Justices who must
have judicial experience, training
and acumen”
मा० सर्वोच्च
न्यायालय के उपरोक्त आदेश से स्पष्ट है कि मा० आयोग किसी भी प्रकार से न्यायिक
कार्य सम्पादित नहीं करता है और यह मात्र प्रशासनिक कार्य करता है. अतः ना तो
कोर्ट होने और ना ही कोई न्यायिक कार्य करने के कारण मा० आयोग किसी भी प्रकार से धारा 345 सीआरपीसी तथा/अथवा धारा 228 आईपीसी के अंतर्गत कार्यवाही करने का अधिकारी
प्रतीत नहीं होता है.
यह तथ्य भी विशेष रूप से दृष्टव्य है कि ये
दोनों लोग जिनके विरुद्ध यह कारण बताओ नोटिस जारी किये गए वे आरटीआई कार्यकर्ता थे
जि के विरुद्ध इस प्रकार विधि के विपरीत कारण बातों नोटिस जारी करने के सम्बन्ध
में आरटीआई कार्यकर्ताओं में प्रतिकूल मत है.
उपरोक्त तथ्यों के
दृष्टिगत आपसे निम्न निवेदन हैं-
1.
कृपया हमारी शिकायत में प्रस्तुत तथ्यों/साक्ष्यों की जांच करा कर इनकी सत्यता
और विधिक स्थिति स्पष्ट कर ली जाए
2.
यदि हमारी बात सही है तो मा० आयोग तथा इसके सभी मा० आयुक्तों को इस प्रकार
विधि के विरुद्ध कार्यवाही करने से पूर्णतया निषिद्ध किये जाने हेतु निर्देशित
करने की कृपा करें
3.
यदि हमारी बात सही है तो पूर्व में इस प्रकार निर्गत समस्त कारण-बताओ नोटिस को
समाप्त किये जाने/वापस लिए जाने हेतु आदेशित करने की कृपा करें
4.
यदि जांच में यह बात सिद्ध होती है कि एक या अधिक मा० सूचना आयुक्तों ने
जानबूझ कर इस प्रकार के कारण बताओं नोटिस जारी किये तो मा० राज्यपाल को धारा 17(1), सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 में प्रदत्त अधिकारों के अनुसार ऐसे मा० आयुक्तों को
पदच्युत किये जाने हेतु अपनी जांच आख्या मा० सर्वोच्च न्यायालय को अग्रिम कार्यवाही
करने हेतु प्रेषित करने की कृपा करें.
निवेदन है कि प्रकरण की गंभीरता के दृष्टिगत इस मामले में यथाशीघ्र कार्यवाही
सम्पादित कराये जाने की कृपा करें.
पत्र संख्या- AT/SIC/Cont/01 भवदीय,
दिनांक-23/05/2014
(डॉ नूतन ठाकुर) (अमिताभ ठाकुर)
5/426, विराम खंड,
गोमती नगर, लखनऊ
# 94155-34526
प्रतिलिपि- 1. प्रमुख सचिव, प्रशासनिक सुधार विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ को कृपया आवश्यक
कार्यवाही हेतु
2. मा० मुख्य सूचना आयुक्त, मा० उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग, लखनऊ को कृपया प्रकरण में मेरे द्वारा उठाये बिन्दुओं पर विधिक स्थिति से अवगत होते हुए तदनुसार आवश्यक कार्यवाही किये जाने हेतु
2. मा० मुख्य सूचना आयुक्त, मा० उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग, लखनऊ को कृपया प्रकरण में मेरे द्वारा उठाये बिन्दुओं पर विधिक स्थिति से अवगत होते हुए तदनुसार आवश्यक कार्यवाही किये जाने हेतु
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ReplyDelete1) Order of Commission
2) Arrest Warrant
3) Sri Pankaj issued notice under section 345 CrPC for alleged offence under section 228 IPC.
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