जांच एजेंसियों पर
नियंत्रण विषयक पीआईएल
राष्ट्रीय परिदृश्य
पर घटी घटनाएं, जिनमे मा० सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई के सम्बन्ध में पिंजरे
में बंद तोते वाली बात पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है और मा० सर्वोच्च
न्यायालय सीबीआई को और अधिक स्वायत्त करने की विभिन्न संभावनाओं पर अनवरत विचार कर
रहा है, संभवतः इसकी और अधिक जरूरत उत्तर प्रदेश में समझते हुए मैंने और मेरी
पत्नी नूतन ठाकुर द्वारा उत्तर प्रदेश के विभिन्न अन्वेषण एजेंसियों- सतर्कता
अधिष्ठान, सीबी-सीआईडी, आर्थिक अपराध अनुसन्धान संगठन (ईओडब्ल्यू), एसआईबी को-ऑपरेटिव
तथा भ्रष्टाचार निवारण संगठन (एसीओ) की जांच प्रक्रिया में उत्तर प्रदेश सरकार के
नियंत्रण को समाप्त किये जाने के सम्बन्ध में आज इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच
में एक रिट याचिका दायर की है.
याचिका में कहा गया
है कि अपराधों का अन्वेषण और इनकी जांच दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के अनुसार की जाती है. सीआरपीसी में आपराधिक विवेचना का पूरा दायित्व
और पूरे अधिकार अन्वेषण अधिकारी और उसके वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को हैं. जांचकर्ता
अधिकारी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विवेचना करके उसके परिणाम से सीधे न्यायालय
को अवगत कराएगा. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में सतर्कता अधिष्ठान शासन के सतर्कता
विभाग और सीबी-सीआईडी, ईओडब्ल्यू, एसआईबी तथा एसीओ गृह विभाग को अपनी जांच आख्या
सौंपते हैं और वे ही इन पर अंतिम निर्णय करते हैं.
याचिका के अनुसार यह
व्यवस्था दाण्डिक विधि के विरुद्ध है और इससे जांच और विवेचना में बाहरी अवांछनीय दवाब
की बहुत अधिक संभावना बढ़ जाती है.
याचिका में मा० सुप्रीम
कोर्ट द्वारा विनीत नारायण बनाम भारत सरकार और कोलगेट घोटाले में सीबीआई के
सम्बन्ध में विस्तार से की गयी टिप्पणियो का विषद उल्लेख किया गया है.
मैं विनीत नारायण केस से
मा० न्यायालय के आदेश का अंश प्रस्तुत करता हूँ-
"जब एक बार सीबीआई को एक्ट की धारा तीन में विवेचना करने के आदेश हो जाते हैं
और इस सम्बन्ध में नोटिफिकेशन हो जाता है तो इसके बाद अन्वेषण की पूरी प्रक्रिया
दाण्डिक विधि के अनुसार ही संपन्न हो सकती है और यह शासन के किसी प्रशासनिक आदेशों
के क्रम में किसी भी प्रकार से नहीं रोकी जा सकती है. यह तथ्य इस बात से सामने आता है कि सीबीआई को
दिया गया अधिकार एक विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार है और यह अधिकार आपराधिक मामलों
में सीबीआई द्वारा अन्वेषण करने के धारा तीन के अधिकारों से संचालित होता है. उः
विधि की सर्वमान्य व्यवस्था है कि कोई भी कानूनी अधिकार किसी प्रशासनिक आदेशों द्वारा
नहीं कम की जा सकती है और उस पर कोई नियंत्रण ही किया जा सकता है.”
इसी प्रकार से मौजूदा समय प्रचलित कोलगेट घोटाला
मामले में भी मा० सर्विच्च न्यायालय के आदेशित किया-
"विनीत नारायण में यह स्वीकार किया गया था कि सीबीआई को सम्पूर्ण नियंत्रण एंड
उसके द्वारा सही ढंग से कार्य कर सकने का पूर्ण अधिकार और जिम्मेदारी कार्यपालिका
की होगी पर साथ ही इस न्यायालय का यह मत था विवेचना के मामलों में इसे बाह्य
प्रभावों से मुक्त किये जाने की नितांत आवश्यकता है. कोर्ट ने यह कहा था कि यद्यपि
सीबीआई के लिए जिम्मेदार मंत्री को उसकी कार्यप्रणाली और उसके कार्यों पर बाहरी
रूप से नियंत्रण करने का अधिकार है और उसे सामान्य रूप से नीति निर्धारण का भी हक
है और साथ ही उसे किसी मामले में एजेंसी द्वारा की जा रही जांच की प्रगति के
सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने का भी अधिकार है पर इनमे से कोई भी अधिकार
सम्बंधित मंत्री को यह अधिकार नहीं देता है कि वह किसी भी मामले में किसी विवेचना
और अन्य आतंरिक कार्यवाही में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप करें.”
इन्ही तथ्यों के
आधार पर यह प्रार्थना की गयी है कि इस सभी जांच एजेंसियों- सतर्कता अधिष्ठान,
सीबी-सीआईडी, ईओडब्ल्यू, एसआईबी तथा एसीओ को निर्देशित किया जाए कि वे अपनी जांच आख्या
अंतिम निर्णय के लिए शासन को नहीं भेज कर इन पर स्वयं अंतिम निर्णय लें ताकि जांच
और अन्वेषण पर कथित रूप से पड़ने वाले बाह्य दवाबों से मुक्ति मिल सके.
इस सम्बन्ध में आपके उत्तर और आपकी प्रतिक्रिया
की अपेक्षा रहेगी.
अमिताभ
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